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गुरुवार, मार्च 24, 2011

आजमगढ़ के मनोज यादव ने दिया ‘दे घुमा के..'


राहुल सांकृत्यायन, अल्लामा शिबली नोमानी और कैफी आजमी की धरती आजमगढ़ सदैव सुर्ख़ियों में रहती है, पर इस बार एक बेहद रचनात्मक और जोशीले वजह से। दरअसल देश में खेल से ज्यादा जुनून का दर्जा प्राप्त क्रिकेट के महाकुम्भ आईसीसी के थीम सांग लिखने का गौरव आजमगढ़ जिले के सपूत मनोज यादव को हासिल हुआ है।मनोज यादव के लिखे गीत को शंकर महादेवन ने गया है और संगीतबद्ध किया शंकर-एहसान-लाय ने। बरास्ता मनोज यादव, आजमगढ़वासी अपनी ओर अंगुली उठाने वालों को एक संदेश भी दे रहे हैं और कह रहे हैं......दे घुमा के.....!

‘दे घुमा के....आसमान में मार के डुबकी, उड़ा दे सूरज की झपकी, सर्र से चीर हवा का पर्दा बाँध ले पट्ठे जमके गर्दा.....‘ आजमगढ़ के वासी मनोज यादव के दिलो-दिमाग में जन्मा यह गीत देश को आज एक ऊर्जा, एक जोश दे रहा है। इससे आजमगढ़ की फिजां बदली-बदली सी नजर आ रही है। अब यहाँ सृजनात्मकता है, जोश है, देश की माथे की बिन्दी बनने का जज्बा है। जिले के सगड़ी तहसील के भरौली गाँव निवासी मनोज यादव की उपलब्धि पर पूरे जिले को नाज है।

बताए हैं कि मनोज यादव के पिता स्व0 हरिश्चन्द्र यादव जब मुम्बई गये थे तो उनकी आखों में तमाम सपने थे। दो पुत्रों मनोज व प्रमोद व एक पुत्री पुष्पा के पिता हरिश्चन्द्र रेमण्ड कम्पनी में सुपरवाइजर बनें। मनोज यादव ने पिता के सपनों को साकार करना सीखा और उतर गए फिल्मों-विज्ञापनों के लिए गीत व जिंगल लिखने में। गुलजार को प्रेरणा स्रोत मानने वाले मनोज की प्रतिभा को गायक शंकर महादेवन ने पहचाना और शंकर-एहसान-लाय के कहने पर ओ एण्ड एम कम्पनी ने आईसीसी वल्र्ड कप के थीम सांग को लिखने का जिम्मा सौंपा, जिसे मनोज ने बखूबी पूरा किया। गौरतलब है कि क्रिकेट विश्व कप 2011 का आयोजन भारत, बांग्लादेश और श्रीलंका में 19 फरवरी 2011 से हो रहा है. इसलिए इस गीत को हिंदी, बांग्ला और सिंहली भाषाओं में तैयार किया गया.

(चित्र में मनोज यादव का गृहनगर आजमगढ़ में हुए अभिनन्दन की प्रेस कटिंग)

हम सभी की तरफ से मनोज यादव को इस सृजनात्मक उपलब्धि पर हार्दिक बधाइयाँ !!

शुक्रवार, मार्च 18, 2011

होली तेरे रूप अनेक

संस्कृति में उत्सवों और त्यौहारों का आदि काल से ही महत्व रहा है। त्यौहार जीवन के उत्सव हैं। हर संस्कार को एक उत्सव का रूप देकर उसकी सामाजिक स्वीकार्यता को स्थापित करना भारतीय लोक संस्कृति की सबसे बड़ी विशेषता रही है। भारत में उत्सव व त्यौहारों का सम्बन्ध किसी जाति, धर्म, भाषा या क्षेत्र से न होकर समभाव से है और हर त्यौहार के पीछे एक ही भावना छिपी होती है- मानवीय गरिमा को समृद्ध करना। शायद यही कारण है कि एक समय किसी धर्म विशेष के त्यौहार माने जाने वाले पर्व आज सभी धर्मों के लोग आदर के साथ हँसी-खुशी मनाते हैं। उत्सव जीवन की लय और निरंतरता बनाते हैं। उत्सव मनते रहें इसलिए त्योहार इनके बहाने हैं।

होली भारतीय समाज का एक प्रमुख त्यौहार है, जिसका लोग बेसब्री के साथ इंतजार करते हैं। भारत के विभिन्न क्षेत्रों में अलग-अलग रूपों में होली मनाई जाती है। होली के रंग हमें प्रकृति से जोड़ते हैं। वसंत की फगुनाई के बीच घनी भूरी टहनियों पर हरे पत्तों के बीच चटक नांरगी रंग के टेसू के फूल इस उल्लास को और भी बढ़ा देते हैं। आखिर होली के रंग बनाने की शुरुआत तो इन्हीं टेसू के फूलों से ही हुई है। यह होली के समय कहाँ से और कैसे आते हैं, कोई नहीं जानता है? पर हर होली के समय आकर ये एक खुशी जरुर दे जाते हैं। जीवन के उत्सवों की भाँति इनका आना-जाना होली के रंग को और भी चटक बना जाता है। रबी की फसल की कटाई के बाद वसन्त पर्व में मादकता के अनुभवों के बीच मनाया जाने वाला होली पर्व उत्साह और उल्लास का परिचायक है। अबीर-गुलाल व रंगों के बीच भांग की मस्ती में फगुआ गाते इस दिन क्या बूढे़ व क्या बच्चे, सब एक ही रंग में रंगे नजर आते हैं।

नारद पुराण के अनुसार दैत्य राज हिरणकश्यप को यह घमंड था कि उससे सर्वश्रेष्ठ दुनिया में कोई नहीं, अतः लोगों को ईश्वर की पूजा करने की बजाय उसकी पूजा करनी चाहिए। पर उसका बेटा प्रहलाद जो कि विष्णु भक्त था, ने हिरणकश्यप की इच्छा के विरूद्ध ईश्वर की पूजा जारी रखी। हिरणकश्यप ने प्रहलाद को प्रताड़ित करने हेतु कभी उसे ऊंचे पहाड़ों से गिरवा दिया, कभी जंगली जानवरों से भरे वन में अकेला छोड़ दिया पर प्रहलाद की ईश्वरीय आस्था टस से मस न हुयी और हर बार वह ईश्वर की कृपा से सुरक्षित बच निकला। अंततः हिरणकश्यप ने अपनी बहन होलिका जिसके पास एक जादुई चुनरी थी, जिसे ओढ़ने के बाद अग्नि में भस्म न होने का वरदान प्राप्त था, की गोद में प्रहलाद को चिता में बिठा दिया ताकि प्रहलाद भस्म हो जाय। पर होनी को कुछ और ही मंजूर था, ईश्वरीय वरदान के गलत प्रयोग के चलते जादुई चुनरी ने उड़कर प्रहलाद को ढक लिया और होलिका जल कर राख हो गयी और प्रहलाद एक बार फिर ईश्वरीय कृपा से सकुशल बच निकला। दुष्ट होलिका की मृत्यु से प्रसन्न नगरवासियांे ने उसकी राख को उड़ा-उड़ा कर खुशी का इजहार किया। मान्यता है कि आधुनिक होलिकादहन और उसके बाद अबीर-गुलाल को उड़ाकर खेले जाने वाली होली इसी पौराणिक घटना का स्मृति प्रतीक है।

भविष्य पुराण में वर्णन आता है कि राजा रघु के राज्य में धुंधि नामक राक्षसी को भगवान शिव द्वारा वरदान प्राप्त था कि उसकी मृत्यु न ही देवताओं, न ही मनुष्यों, न ही हथियारों, न ही सर्दी-गर्मी-बरसात से होगी। इस वरदान के बाद उसकी दुष्टतायें बढ़ती गयीं और अंततः भगवान शिव ने ही उसे यह शाप दे दिया कि उसकी मृत्यु बालकों के उत्पात से होगी। धुंधि की दुष्टताओं से परेशान राजा रघु को उनके पुरोहित ने सुझाव दिया कि फाल्गुन मास की 15वीं तिथि को जब सर्दियों पश्चात गर्मियाँ आरम्भ होती हैं, बच्चे घरों से लकड़ियाँ व घास-फूस इत्यादि एकत्र कर ढेर बनायें और इसमें आग लगाकर खूब हल्ला-गुल्ला करें। बच्चों के ऐसा ही करने से भगवान शिव के शाप स्वरूप राक्षसी धुंधि ने तड़प-तड़प कर दम तोड़ दिया। ऐसा माना जाता है कि होली का पंजाबी स्वरूप ‘धुलैंडी’ धुंधि की मृत्यु से ही जुड़ा हुआ है। आज भी इसी याद में होलिकादहन किया जाता है और लोग अपने हर बुरे कर्म इसमें भस्म कर देते हैं।

होली की रंगत बरसाने की लट्ठमार होली के बिना अधूरी ही कही जायेगी। कृष्ण-लीला भूमि होने के कारण फाल्गुन शुल्क नवमी को ब्रज में बरसाने की लट्ठमार होली का अपना अलग ही महत्व है। ब्रज में तो वसंत पंचमी के दिन ही मंदिरों में डांढ़ा गाड़े जाने के साथ ही होली का शुभारंभ हो जाता है। बरसाना में हर साल फाल्गुन शुक्ल नवमी के दिन होने वाली लट्ठमार होली देखने व राधारानी के दर्शनों की एक झलक पाने के लिए यहाँ बड़ी संख्या में श्रद्धालु व पर्यटक देश-विदेश से खिंचे चले आते हैं। इस दिन नन्दगाँव के कृष्णसखा ‘हुरिहारे’ बरसाने में होली खेलने आते हैं, जहाँ राधा की सखियाँ लाठियों से उनका स्वागत करती हैं। यहाँ होली खेलने वाले नंदगाँव के हुरियारों के हाथों में लाठियों की मार से बचने के लिए मजबूत ढाल होती है। परंपरागत वेशभूषा में सजे-धजे हुरियारों की कमर में अबीर-गुलाल की पोटलियाँ बंधी होती हैं तो दूसरी ओर बरसाना की हुरियारिनों के पास मोटे-मोटे तेल पिलाए लट्ठ होते हैं। बरसाना की रंगीली गली में पहुँचते ही हुरियारों पर चारांे ओर से टेसू के फूलों से बने रंगों की बौछार होने लगती है। परंपरागत शास्त्रीय गान ‘ढप बाजै रे लाल मतवारे को‘ का गायन होने लगता है। हुरियारे ‘फाग खेलन बरसाने आए हैं नटवर नंद किशोर‘, का गायन करते हैं तो हुरियारिनें ‘होली खेलने आयै श्याम आज जाकूं रंग में बोरै री‘, का गायन करती हैं। भीड़ के एक छोर से गोस्वामी समाज के लोग परंपरागत वाद्यों के साथ महौल को शास्त्रीय रुप देते हैं। ढप, ढोल, मृदंग की ताल पर नाचते-गाते दोनों दलों में हंसी-ठिठोली होती है। हुरियारिनें अपनी पूरी ताकत से हुरियारों पर लाठियों के वार करती हैं तो हुरियार अपनी ढालों पर लाठियों की चोट सहते हैं। हुरियारे मजबूत ढालों से अपने शरीर की रक्षा करते हैं एवं चोट लगने पर वहाँ ब्रजरज लगा लेते हैं। बरसाना की होली के दूसरे दिन फाल्गुन शुक्ल दशमी को सायंकाल ऐसी ही लट्ठमार होली नन्दगाँव में भी खेली जाती है। अन्तर मात्र इतना है कि इसमें नन्दगाँव की नारियाँ बरसाने के पुरूषों का लाठियों से सत्कार करती हैं। इसमें बरसाना के हुरियार नंदगाँव की हुरियारिनों से होली खेलने नंदगाँव पहुँचते हैं। फाल्गुन की नवमी व दशमी के दिन बरसाना व नंदगाँव के लट्ठमार आयोजनों के पश्चात होली का आकर्षण वंृदावन के मंदिरों की ओर हो जाता है, जहाँ रंगभरी एकादशी के दिन पूरे वृंदावन में हाथी पर बिठा राधावल्लभ लाल मंदिर से भगवान के स्वरुपों की सवारी निकाली जाती है। बाद में भी ठाकुर के स्वरूप पर गुलाल और केशर के छींटे डाले जाते हैं। ब्रज की होली की एक और विशेषता यह है कि धूलैड़ी मना लेने के साथ ही जहाँ देश भर में होली का खूमार टूट जाता है, वहीं ब्रज में इसके चरम पर पहुँचने की शुरुआत होती है।

फागुन में जब रंगों की फुहारें भगवान श्री कृष्ण के बरसाने के होली उत्सव की याद दिलाती हैं तो रामलीला का आयोजन कुछ अजीब लगता है, लेकिन बरेली शहर में होली के रंगो में भगवान राम के आदर्श भी गूंजते हैं। 150 से भी अधिक साल से यहाँ फागुन में वमनपुरी की रामलीला होती आ रही है। संभवतः देश में यह अकेला ऐसी रामलीला है जो होली के उपलक्ष्य में होती है। यहांँ चैत्र कृष्ण एकादशी पर रामलीला का मंचन शुरु हो जाता है और धुलंडी के दिन तक रोज विभिन्न प्रसंगों का मंचन होता है। रामलीला का समापन नृसिंह भगवान की शोभा यात्रा के साथ होता है। होली के दिन रामलीला से निकलने वाली राम बारात शहर में अनूठे रंग बिखेरती है। इसमें सौहार्द के फूल बरसते हैं। हिन्दू हो या मुस्लिम सभी पुष्पवर्षा कर राम बारात का स्वागत करते हैं। फागुनी फिजाओं में रामलीला का यह उत्सव वाकई अद्भुत है। इसी प्रकार बनारस की होली का भी अपना अलग अन्दाज है। बनारस को भगवान शिव की नगरी कहा गया है। यहाँ होली को रंगभरी एकादशी के रूप में मनाते हैं और बाबा विश्वनाथ के विशिष्ट श्रृंगार के बीच भक्त भांग व बूटी का आन्नद लेते हैं।

होली को लेकर देश के विभिन्न अंचलों में तमाम मान्यतायें हैं और शायद यही विविधता में एकता की भारतीय संस्कृति का परिचायक भी है। उत्तर पूर्व भारत में होलिकादहन को भगवान कृष्ण द्वारा राक्षसी पूतना के वध दिवस से जोड़कर पूतना दहन के रूप में मनाया जाता है तो दक्षिण भारत में मान्यता है कि इसी दिन भगवान शिव ने कामदेव को तीसरा नेत्र खोल भस्म कर दिया था और उनकी राख को अपने शरीर पर मल कर नृत्य किया था। तत्पश्चात कामदेव की पत्नी रति के दुख से द्रवित होकर भगवान शिव ने कामदेव को पुनर्जीवित कर दिया, जिससे प्रसन्न हो देवताओं ने रंगों की वर्षा की। इसी कारण होली की पूर्व संध्या पर दक्षिण भारत र्में अिग्न प्रज्वलित कर उसमें गन्ना, आम की बौर और चन्दन डाला जाता है। यहाँ गन्ना कामदेव के धनुष, आम की बौर कामदेव के बाण, प्रज्वलित अग्नि शिव द्वारा कामदेव का दहन एवं चन्दन की आहुति कामदेव को आग से हुई जलन हेतु शांत करने का प्रतीक है। मध्यप्रदेश के मंदसौर जिले में अवस्थित धूंधड़का गाँव में होली तो बिना रंगों के खेली जाती है और होलिकादहन के दूसरे दिन ग्रामवासी अमल कंसूबा (अफीम का पानी) को प्रसाद रूप में ग्रहण करते हैं और सभी ग्रामीण मिलकर उन घरों में जाते हैं जहाँ बीते वर्ष में परिवार के किसी सदस्य की मृत्यु हो चुकी होती है। उस परिवार को सांत्वना देने के साथ होली की खुशी में शामिल किया जाता है।

कानपुर में होली का अपना अलग ही इतिहास है। यहाँ अवस्थित जाजमऊ और उससे लगे बारह गाँवों में पाँच दिन बाद होली खेली जाती है। बताया जाता है कि कुतुबुद्दीन ऐबक की हुकुमत के दौरान ईरान के शहर जंजान के शहर काजी सिराजुद्दीन के शिष्यों के जाजमऊ पहुँचने पर तत्कालीन राजा ने उन्हें जाजमऊ छोड़ने का हुक्म दिया तो दोनो पक्षों में जंग आरम्भ हो गई। इसी जंग के बीच राजा जाज का किला पलट गया और किले के लोग मारे गये। संयोग से उस दिन होली थी पर इस दुखद घटना के चलते नगरवासियों ने निर्णय लिया कि वे पाँचवें दिन होली खेलेंगे, तभी से यहाँ होली के पाँचवें दिन पंचमी का मेला लगता है। इसी प्रकार वर्ष 1923 के दौरान होली मेले के आयोजन को लेकर कानपुर के हटिया में चन्द बुद्धिजीवियों व्यापारियों और साहित्यकारों (गुलाबचन्द्र सेठ, जागेश्वर त्रिवेदी, पं0 मुंशीराम शर्मा ‘सोम’, रघुबर दयाल, बाल कृष्ण शर्मा ‘नवीन’, श्याम लाल गुप्त ‘पार्षद’, बुद्धूलाल मेहरोत्रा और हामिद खाँ) की एक बैठक हो रही थी। तभी पुलिस ने इन आठों लोगों को हुकूमत के खिलाफ साजिश रचने के आरोप में गिरफतार करके सरसैया घाट स्थित जिला कारागार में बन्द कर दिया। इनकी गिरफ्तारी का कानपुर की जनता ने भरपूर विरोध किया। आठ दिनों पश्चात् जब उन्हें रिहा किया गया, तो उस समय ‘अनुराधा-नक्षत्र’ लगा हुआ था। जैसे ही इनके रिहा होने की खबर लोगों तक पहुँची, लोग कारागार के फाटक पर पहुँच गये। उस दिन वहीं पर मारे खुशी के पवित्र गंगा जल में स्नान करके अबीर-गुलाल और रंगों की होली खेली। देखते ही देखते गंगा तट पर मेला सा लग गया। तभी से परम्परा है कि होली से अनुराधा नक्षत्र तक कानपुर में होली की मस्ती छायी रहती है और आठवें दिन प्रतिवर्ष गंगा तट पर गंगा मेले का आयोजन किया जाता है।

पग-पग पर बदले बोली, पग-पग पर बदले भेष, वाले भारतवर्ष में होली का त्यौहार धूम-धाम से विभिन्न रंगों में मनाया जाता है। भारतीय उत्सवों को लोकरस और लोकानंद का मेल कहा गया है। भूमण्डलीकरण और उपभोक्तावाद के बढ़ते दायरों के बीच इस रस और आनंद में डूबा भारतीय जन-मानस आज भी न तो बड़े-बड़े माल और क्लबों में मनने वाले फेस्ट से चहकार भरता है और न ही किसी कम्पनी के सेल आफर को लेकर आन्तरिक उल्लास से भरता है। होली पर्व के पीछे तमाम धार्मिक मान्यताएं, मिथक, परम्पराएं और ऐतिहासिक घटनाएं छुपी हुई हैं पर अंततः इस पर्व का उद्देश्य मानव-कल्याण ही है। लोकसंगीत, नृत्य, नाट्य, लोककथाओं, किस्से-कहानियों और यहाँ तक कि मुहावरों में भी होली के पीछे छिपे संस्कारों, मान्यताओं व दिलचस्प पहलुओं की झलक मिलती है। नए वó, नया श्रृंगार और लज़ीज़ पकवानों के बीच होली पर्व मनाने का एक मनोवैज्ञानिक कारण भी गिनाया जाता है कि यह पर्व के बहाने समाज एवं व्यक्तियों के अन्दर से कुप्रवृत्तियों एवं गन्दगी को बाहर निकालने का माध्यम है। होली पर खेले गए रंग गन्दगी के नहीं बल्कि इस विचार के प्रतीक हैं कि इन रंगों के धुलने के साथ-साथ व्यक्ति अपने राग-द्वेष भी धुल दे। होली पर रंग-पुते चेहरों की भी अपनी महत्ता है। एक तरफ ये हास्य की सृष्टि में सहायक होते हैं वहीँ दूसरों को रंगने या मूर्ख बनाने की चेष्टा में खुद को रँगा जाना या मूर्ख बन जाना, रंग लगाने के बहाने थोड़ी छूट लेने के प्रयास में पकड़े जाना और उपहास का पात्र बनना-ये सब क्रिया-कलाप करने वालों को और देखने वाले को भी गुदगुदाते हैं। सही रूप में देखें तो होली के माध्यम से जीवन में व्याप्त निराशाजनक विचारों से मुक्त होकर नए आशावादी विचारों के साथ उल्लासपूर्वक जीवन का आरंभ संभव है। यही कारण है कि रंगों को धुलने के बाद लोग मस्ती में फगुआ गाते हैं और एक दूसरे को अबीर-गुलाल लगाकर भाईचारे का प्रदर्शन करते हैं। आज जब चारों तरफ आतंक और खून की होली खेली जा रही है, वहां रंगों का यह त्योहार यह सन्देश भी देता है कि इंसानियत का रंग एक ही है। हंसी खुशी, उल्लास का रंग एक है।

साभार : कृष्ण कुमार यादव : हमारीवाणी

मंगलवार, मार्च 08, 2011

अन्तर्राष्ट्रीय महिला दिवस पर एक कविता


आज अन्तर्राष्ट्रीय महिला दिवस की 101 वीं वर्षगांठ है. इस अवसर पर एक कविता 'शब्द-सृजन की ओर' ब्लॉग पर लिखी. इसे यहाँ भी प्रस्तुत कर रहा हूँ-

नहीं हूँ मैं माँस-मज्जा का एक पिंड
जिसे जब तुम चाहो जला दोगे
नहीं हूँ मैं एक शरीर मात्र
जिसे जब तुम चाहो भोग लोगे
नहीं हूँ मैं शादी के नाम पर अर्पित कन्या
जिसे जब तुम चाहो छोड़ दोगे
नहीं हूँ मैं कपड़ों में लिपटी एक चीज
जिसे जब तुम चाहो तमाशा बना दोगे।

मैं एक भाव हूँ, विचार हूँ
मेरा एक स्वतंत्र अस्तित्व है
ठीक वैसे ही, जैसे तुम्हारा
अगर तुम्हारे बिना दुनिया नहीं है
तो मेरे बिना भी यह दुनिया नहीं है।

फिर बताओं
तुम क्यों अबला मानते हो मुझे
क्यों पग-पग पर तिरस्कृत करते हो मुझे
क्या देह का बल ही सब कुछ है
आत्मबल कुछ नहीं
खामोश क्यों हो
जवाब क्यों नहीं देते........?

बुधवार, मार्च 02, 2011

आजमगढ़ की आकांक्षा यादव को 'न्यू ऋतंभरा भारत-भारती साहित्य सम्मान'


युवा कवयित्री एवँ साहित्यकार सुश्री आकांक्षा यादव को हिन्दी साहित्य में प्रखर रचनात्मकता एवँ अनुपम कृतित्व के लिए छत्तीसगढ़ की प्रमुख साहित्यिक संस्था न्यू ऋतंभरा साहित्य मंच, दुर्ग द्वारा ''भारत-भारती साहित्य सम्मान-2010'' से सम्मानित किया गया है। गौरतलब है कि सुश्री आकांक्षा यादव की आरंभिक रचनाएँ दैनिक जागरण और कादम्बिनी में प्रकाशित हुई और फ़िलहाल वे देश की शताधिक पत्र-पत्रिकाओं में नियमित रूप से प्रकाशित हो रही हैं। नारी विमर्श, बाल विमर्श एवँ सामाजिक सरोकारों सम्बन्धी विमर्श में विशेष रूचि रखने वाली सुश्री आकांक्षा यादव के लेख, कवितायेँ और लघुकथाएं जहाँ तमाम संकलनों/पुस्तकों की शोभा बढ़ा रहे हैं, वहीँ आपकी तमाम रचनाएँ आकाशवाणी से भी तरंगित हुई हैं। पत्र-पत्रिकाओं के साथ-साथ अंतर्जाल पर भी सक्रिय सुश्री आकांक्षा यादव की रचनाएँ इंटरनेट पर तमाम वेब/ ई-पत्रिकाओं और ब्लॉगों पर भी पढ़ी-देखी जा सकती हैं।

आपकी तमाम रचनाओं के लिंक विकिपीडिया पर भी दिए गए हैं। 'शब्द-शिखर', 'सप्तरंगी-प्रेम', 'बाल-दुनिया' और 'उत्सव के रंग' ब्लॉग आप द्वारा संचालित/सम्पादित हैं। 'क्रांति-यज्ञ : 1857-1947 की गाथा' पुस्तक का संपादन करने वाली सुश्री आकांक्षा के व्यक्तित्व-कृतित्व पर वरिष्ठ बाल साहित्यकार डॉ. राष्ट्रबन्धु जी ने ‘‘बाल साहित्य समीक्षा‘‘ पत्रिका का एक अंक भी विशेषांक रुप में प्रकाशित किया है।

मूलत: उत्तर प्रदेश के एक कॉलेज में प्रवक्ता सुश्री आकांक्षा यादव वर्तमान में अपने पतिदेव श्री कृष्ण कुमार यादव के साथ अंडमान-निकोबार में रह रही हैं और वहाँ रहकर भी हिन्दी को समृद्ध कर रही हैं। श्री यादव भी हिन्दी की युवा पीढ़ी के सशक्त हस्ताक्षर हैं और सम्प्रति अंडमान-निकोबार द्वीप समूह के निदेशक डाक सेवाएँ पद पर पदस्थ हैं। एक रचनाकार के रूप में बात करें तो सुश्री आकांक्षा यादव ने बहुत ही खुले नजरिये से संवेदना के मानवीय धरातल पर जाकर अपनी रचनाओं का विस्तार किया है। बिना लाग लपेट के सुलभ भाव भंगिमा सहित जीवन के कठोर सत्य उभरें यही आपकी लेखनी की शक्ति है। उनकी रचनाओं में जहाँ जीवंतता है, वहीं उसे सामाजिक संस्कार भी दिया है।

सुश्री आकांक्षा यादव को इससे पूर्व भी विभिन्न साहित्यिक-सामाजिक संस्थानों द्वारा सम्मानित किया जा चुका है। जिसमें भारतीय दलित साहित्य अकादमी द्वारा ‘‘वीरांगना सावित्रीबाई फुले फेलोशिप सम्मान‘, राष्ट्रीय राजभाषा पीठ इलाहाबाद द्वारा ‘‘भारती ज्योति‘‘, ‘‘एस0एम0एस0‘‘ कविता पर प्रभात प्रकाशन, नई दिल्ली द्वारा पुरस्कार, मध्यप्रदेश नवलेखन संघ द्वारा ‘‘साहित्य मनीषी सम्मान‘‘ व ‘‘भाषा भारती रत्न‘‘, छत्तीसगढ़ शिक्षक-साहित्यकार मंच द्वारा ‘‘साहित्य सेवा सम्मान‘‘, ग्वालियर साहित्य एवँ कला परिषद द्वारा ‘‘शब्द माधुरी‘‘, इन्द्रधनुष साहित्यिक संस्था, बिजनौर द्वारा ‘‘साहित्य गौरव‘‘ व ‘‘काव्य मर्मज्ञ‘‘, श्री मुकुन्द मुरारी स्मृति साहित्यमाला, कानपुर द्वारा ‘‘साहित्य श्री सम्मान‘‘, मथुरा की साहित्यिक-सांस्कृतिक संस्था ‘‘आसरा‘‘ द्वारा ‘‘ब्रज-शिरोमणि‘‘ सम्मान, देवभूमि साहित्यकार मंच, पिथौरागढ़ द्वारा ‘‘देवभूमि साहित्य रत्न‘‘, राजेश्वरी प्रकाशन, गुना द्वारा ‘‘उजास सम्मान‘‘, ऋचा रचनाकार परिषद, कटनी द्वारा ‘‘भारत गौरव‘‘, अभिव्यंजना संस्था, कानपुर द्वारा ‘‘काव्य-कुमुद‘‘, महिमा प्रकाशन, दुर्ग-छत्तीसगढ द्वारा ’महिमा साहित्य भूषण सम्मान’, अन्तर्राष्ट्रीय पराविद्या शोध संस्था, ठाणे, महाराष्ट्र द्वारा ‘‘सरस्वती रत्न‘‘, अन्तज्र्योति सेवा संस्थान गोला-गोकर्णनाथ, खीरी द्वारा श्रेष्ठ कवयित्री की मानद उपाधि इत्यादि प्रमुख हैं। सुश्री आकांक्षा यादव को इस अलंकरण हेतु हार्दिक बधाईयाँ।